Thursday 6 July 2017

जानें क्यूँ..



कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ,
बस जिये जा रहा हूँ..
यूहीं दिन उगता है,
यूहीं रात होती है,
मुझे तो ना सूरज दिखता है,
ना चाँद से मुलाकात होती है..
ना मैं कहीं उठकर जा सकता,
ना मेरी किसी से बात होती है..
वो जो मैं था,
वर्षों पहले कहीं छूट गया,
अपने आप को भी अब मैं,
मिल नहीं पा रहा हूँ,
बस जिये जा रहा हूँ..

ना मैं किसी के काम का,
रह गया बस नाम का,
मूल्य नहीं अब मेरा कोई,
शरीर मेरा बिना दाम का,
मन में तकलीफ है,
उठ रही एक टीस है,
घुट रहा हूँ अंदर अंदर,
मगर कुछ कह नहीं पा रहा हूँ,
बस जिये जा रहा हूँ..

होना है खड़ा मुझे पैरों पर,
नहीं रहना आश्रित गैरों पर,
मुझे भी बाहर जाना है,
लोगों का प्यार पाना है,
मुसीबतों से लड़कर,
अपने दम पर,
अलग संसार बसाना है,
मगर क्या करूँ 'साहेब'
इन दरो-दीवारों से निकल नहीं पा रहा हूँ,
बस जिये जा रहा हूँ..

कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ,
जाने क्यूँ..
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