Friday 4 August 2017

एहसास-ए-मोहब्बत..!!


यकीनन उधर तो होती होगी,
मगर इधर नहीं होती,
मुझे बाहर की दुनिया की,
कोई खबर नहीं होती..

अंधेरा ही रहता है,
हरदम मेरे आसपास,
रात आकर गुज़र जाती है,
मेरी मगर सहर नहीं होती..

मैंने सब दुख जहाँ के देखे हैं
बेकद्री भी इस कदर नहीं होती,
ज़ख्म दिल का भरता नहीं दिखता,
कोई आह इतनी बेअसर नहीं होती..

जुगनू हैं, चाँद है, सितारे हैं,
शमा कोई रातभर की नहीं होती,
बेकरारी अब सही नहीं जाती,
तन्हाई किसी की हमसफर नहीं होती..

मुंतज़िर हूँ मैं कब से,
एहसास-ए-मोहब्बत का,
अब साथ चाहिये किसी का साहेब,
यूं अकेले ज़िंदगी बसर नहीं होती..!!
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